मै यहा चार साल पहले भी आ चुका हू. मेरा घर यहा से 50 कि.मी की दूरी पर है. यहा इन वर्षो मे मुक्षे कोई बदलाव नही दिख रहा है, जिससे की यहा विश्व के सबसे बड़े स्तूप होने के वजह से पर्यटको को आकर्षित किया जा सके. यह कहना है मोतीहारी के अमन मोदी का ,अमन एक ग्रेजुएट विधार्थी है.
लम्बे समय तक पहचान का संकट झेलता आया, केसरीया बौद्ध स्तूप विभिन्न शोधो के आघार पर विश्व की सबसे बड़ी बौद्ध स्तूप हैं. इस स्तूप की ऊंचाई 104 फीट मानी गई है. इसके साठ फीसद हिस्से की ही अभी खुदाई हो पाई है. अनुमान है कि स्तूप से लेकर दक्षिण दिशा में बहती गंडक नदी तक चौड़ी सड़क अब भी जमींदोज है. जो खुदाई हुई है उसके बारे में जानकारों का मानना है कि यह अपेक्षाकृत बेहद कम इलाके की हुई है. पूरे इलाके की खुदाई हो तो स्तूप के साथ कई ऐसी इमारतें भी प्रकाश में आएंगी जिनके बारे में किसी को पता नहीं है.
अमन कहते है दरसल इस स्थान का सौंदर्यीकरण के लिए कुछ नही किया गया है. यहा इतने दूर से लोग आते है .स्तूप के अलावा ऐसा कोई विकल्प नही है.जिससे लोग यहा 10-15 मीनट भी रूक सके. जैसे स्टैचु आफ युनिटी के आस-पास स्मारक उपवन,संग्रहालय, प्रदर्शनी हॉल या आधुनिक पब्लिक प्लाज़ा विकसीत किये गये है, ऐसे कदम यहा भी उठाये जा सकते है. आकाश का भी यही कहना है यहा आकर केवल समय का बर्बादी हुआ है. स्तूप के आस पास खाने पीने का कुछ व्यवस्था ही नही हैं, कि यहा कुछ देर रूका जा सके.
केसरिया गंडक नदी के किनारे अवस्थित एक महत्वपूर्ण बौद्ध स्थल है. इसका इतिहास काफी पुराना व समृद्ध है. बौद्ध आख्यानों के मुताबिक महापरिनिर्वाण के वक्त वैशाली से कुशीनगर जाते गौतम बुद्ध ने एक रात केसरिया में बिताई थी. कहा जाता है कि यहां उन्होंने अपना भिक्षा-पात्र लिच्छवियों को दे दिया था। आख्यानों के मुताबिक जब भगवान बुद्ध यहां से जाने लगे तो लिच्छवियों ने उन्हें रोकने का काफी प्रयास किया. लिच्छवी नहीं माने तो भगवान बुद्ध ने नदी में कृत्रिम बाढ़ उत्पन्न कर उनका मार्ग अवरूद्ध कर दिया था.
इस स्तूप का निर्माण सम्राट अशोक ने कराया था। कालांतर में यह ऐतिहासिक परिसर विस्मृति के गर्त में समा गया था. यहा कि वर्तमान मे वास्तविकता तो आश्चर्यजनक है स्तूप मे अन्दर जाने तक कच्ची धुल भरी सड़क है. दूर दूर तक न कोई खाने कि व्यवस्था और न ठहरने का है. स्तूप के बाहर मे एक छोटा सा चाय गुमटी और बगल के एक गुमटी में बिस्कुट पानी का दुकान हैं .
इतना ऐतिहासिक महत्व और सुरक्षा का कोई इंतजाम नहीं. यह अविश्वसनीय परंतु सच है. बिहार पुलिस के चार जवान यहां दिन में ड्यूटी करते हैं पर रात में सुरक्षा का कोई प्रबंध यहां नहीं है. स्तूप की सीढिय़ों से पहले लोग शिखर तक जाते थे जिसे सुरक्षा कारणों से रोक दिया गया लेकिन अभी भी लोग गार्ड से छुप कर उपर तक चढ जाते हैं. ईटे छटक कर गीर रहे है. ऐसा कोई उपाय नहीं हुआ है
जिससे लगे कि इस ऐतिहासिक धरोहर के संरक्षण व संर्वद्धन के प्रयास हो रहे हों.
पहले इस स्थान कि पहचान देउर के रूप में थी. जिला प्रशासन की पहल पर 1998 में इस ऐतिहासिक स्थल की खुदाई शुरू हुई तो इलाके में कभी समृद्ध रही बौद्ध परंपरा ने लोगों को ऐसी गौरवानुभूति दी, पूरे इलाके का सीना गर्व से चौड़ा हो गया. भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण कार्यालय ने इस जगह को अपने संरक्षण में ले लिया. इस स्थान के पर्यटक स्थल के रूप में विकसित होने की प्रक्रिया शुरू हुई. देखते-देखते केसरिया न केवल बिहार बल्कि देश और विदेश के पर्यटक मानचित्र पर आ गया. विदेशी पर्यटक पहुंचने लगे. उम्मीदों को पंख लगे. लेकिन लोगो के उम्मीदे धड़ी की धड़ी रह गयी. वर्तमान मे खुदाई का काम भी रूका हुआ हैं.
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